पिछले 26 अप्रेल को हमारी शादी की सालगिरह थी। रीता और मुझे विवाह सूत्र में बंधे पैंतालीसवां साल शुरू हो रहा था। इतना महत्वपूर्ण दिन हम दोनो को याद नहीं था! हम दोनो सवेरे उठ कर अपनी दिनचर्या सामान्य तरीके से शुरू कर रहे थे।
याद था तो मेरे दामाद और बिटिया विवेक और वाणी को। उन्होने हमें फोन कर बताया और शुभकामनायें दी। हमें प्रणाम कर आशीर्वाद भी लिया। अपने बेटे विवस्वान को कहा भी कि वह हमें फोन कर बधाई दे। साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर बोकारो में रह कर गांव में हम लोगों को याद करना और फोन करना तो आधुनिक युग के शिष्टाचार में आयेगा। बहुत से लोग ऐसा कर लेते होंगे। पर विवेक ने जो किया वह इससे आगे था। विवेक ने अपने एक साथी को, जो संयोग से उस दिन बनारस में थे, अनुरोध किया कि वे हमारे पास एक गुलदस्ता उनकी ओर से ले कर भदोही जिले के इस गांव में उनकी ओर से भेंट कर देंं।
वे सज्जन, रंजीत, जब हमारे गेट पर पंहुचे तब बिटिया का फोन आया कि बाहर निकल कर देखें कि आपके दरवाजे पर कौन खड़ा है।
बड़ा सरप्राइज था हमारे लिये। इस तरह विवाह की वर्षगांठ पर अभिनंदन कभी नहीं हुआ था हमारा – चार सौ पचास किलोमीटर दूर से विवेक ने जो गुलदस्ता और क्षीरसागर की मिठाई भिजवाई, वह हमें सदा याद रहेगी।
केवल हमारी ही सुध ली हो विवेक ने, ऐसा नहीं है। पांच दिन बाद, एक मई को, विवेक के अपने माता पिता – श्रीमती लक्ष्मी और श्री रवींद्र पाण्डेय की शादी की सालगिरह थी। वे शादी के पचासवें साल में प्रवेश कर रहे थे। उस दिन भी विवेक-वाणी ने अपने माता पिता के पास फुसरो जा कर उनको बधाई दी और उनका आशीर्वाद लिया। वाणी ने रवींद्र जी से हमारी बातचीत कराई और विवेक ने हमारी ओर से लक्ष्मी-रवींद्र जी को गुलदस्ता भी भेंट किया।
इतनी दूर रहने पर भी इन दो अवसरों पर सब को जोड़ने का काम विवेक ने किया।
ऐसा नहीं कि विवेक केवल सालगिरह या अन्य मांगलिक अवसरों पर ही सक्रियता दिखाते हों। परिवार-कुटुम्ब और अन्य लोगों की विपदा-बीमारी में सेवा-मदद को आगे आने में हमने विवेक को सदैव तत्पर पाया है। महीनों अपना काम-कारोबार छोड़ कर अस्पताल के चक्कर लगाना, लोगों की देखभाल करना और खर्च की परवाह न करते हुये (निस्वार्थ भाव से) उनकी देखभाल में लगे रहना विवेक का बड़ा गुण है जो मैने अन्य लोगों में विरला ही पाया है। ऐसा दामाद मिलना भी मेरे लिये ईश्वरीय प्रसाद है – यह अनुभूति मुझे बहुधा होती रहती है।
मुझे अपना वाकया फिल्म की तरह याद है। मैं यूरीन संक्रमण से भयंकर रूप से ग्रस्त था। आशंका यह बन गयी थी कि शायद मेरी किडनी पर दुष्प्रभाव पड़ा हो। यूटीआई बारम्बार हो जा रहा था। विवेक ने मुझे अपने यहां बुला कर रांची में नेफ्रोलॉजिस्ट खोजा और मुझे ले कर उनके अस्पताल में मेरे लिये लाइन में भी लगे। डाक्टर उत्तमोत्तम थे तो भीड़ भी उनके यहां अधिक थी। विवेक अपने किसी भी कर्मचारी को मेरे साथ भेज कर छुट्टी पा सकते थे। पर पूरे दिन भर मुझे ले पूरे अस्पताल में दौड़ भाग करते रहे। लगभग वैसा ही कार्य उन्होने मेरी पत्नीजी के आंख के ऑपरेशन के समय भी किया।
मुझे लगता है कि विवेक और वाणी को अपने सत्कार्यों के लिये उतना क्रेडिट नहीं ही मिलता होगा जिसको वे डिजर्व करते हैं। बहुधा परोपकारी व्यक्ति से परोपकार-सेवा को लोग अपना ‘हक’ जैसा मानते हैं और उपकार का दबाव उनपर कायम न रहे इसलिये वे कन्नी भी काटने लगते हैं। विवेक से इस फिनॉमिना पर कभी बात नहीं हुई। असल में मेरी विवेक से एक पीढ़ी के अंतर वाली समीकरण है। मैत्री वाला तालमेल बहुत बना नहीं, अन्यथा उनके लोक व्यवहार के अनुभवों पर बात कर उनके इनपुट्स लेना जरूर चाहता। जैसे शिखर पर बहुत एकाकीपन होता है उसी तरह सेवाभाव भी एकाकीपन वाला होता है। अगर आपको उसमें सेल्फ मोटीवेशन न हो तो बहुत जल्दी बिना प्रतिफल के अस्पतालोंंके चक्कर काटना, लोगों की छोटी बड़ी जरूरतों को पूरा करना और कभी कभी उनकी उपेक्षा झेलना – यह सब ऊबाऊ बन जाता है। मन उचाट होने लगता है। … पर विवेक को मैने सदैव तत्पर ही पाया है।
भविष्य में विवेक से अगर मैत्री वाला समीकरण बना तो उनकी जीवन की सोच और फलसफे पर बात करना जरूर चाहूँगा। फिलहाल तो उनके गुलदस्ते-मिठाई और उनके भाव प्रसन्न कर रहे हैं।
जय हो!